बुधवार, 28 जनवरी 2009

मैंने गाँधी को देखा
मैंने गाँधी को देखा
कमर में धोती बांधे
दुखी मन से कुछ समेटते हुए
पूछा तो वही चिरपरिचित आवाज ,
सोई आत्माओं को जगा देने वाला तांत्रिक
बूढी लाठी के सहारे सम्हलते हुए बोला
ये मेरे सपने हैं जिन्हें मैंने देखा
साकार न हो सकें
उलझ कर रह गए हैं तुम्हारे देश में
वापस ले जा रहा हूँ
शायद कही और साकार हो सकें ।
तब हमारे लिए क्या ?मैंने पूछा...
तो बोले अब तुम मुझे जाने भी न दोगे
और छोड़ गए अपनी लाठी
[तुम इसी की भाषा समझते हो]
और निकल पढ़े बिना सहारे के ही
लडखडाते हुए तेजी से
...कि कहीं कुछ और न मांग ले .

1 टिप्पणी:

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